Jolly LLB 3 REVIEW: यह सिर्फ कोर्टरूम ड्रामा नहीं, बल्कि व्यवस्था पर सीधा आईना है।
👉 रेटिंग: ⭐⭐⭐⭐ (4/5)
विरासत और तासीर
Jolly LLB 3 Review :”अगर कहा जाए कि जॉली एलएलबी ने अपनी एक अनोखी विरासत गढ़ ली है, तो यह बिल्कुल गलत नहीं होगी। जैसे ‘दबंग’ और ‘टाइगर’ जैसी फिल्में अपनी छाप छोड़ चुकी हैं, वैसे ही यह फिल्म सिर्फ एक कोर्टरूम ड्रामा नहीं, बल्कि समाज की उन कड़वी सच्चाइयों की गवाही है जिन्हें हम अक्सर अनदेखा कर देते हैं। यह कहानी हंसी-ठिठोली के पीछे छुपे गहरे दर्द को सामने लाती है—बिना किसी शोर-शराबे के, बिना धर्म और राजनीति का सहारा लिए। Jolly LLB 3 भी उसी साफ और ईमानदार अंदाज़ में लौटती है, लेकिन इस बार यह दिल में और गहरी चुभन छोड़ती है।” और फिल्में ऐसी ही बनानी चाहिए |
कहानी जो दिल तक पहुँचती है
फिल्म का दिल किसानों की त्रासदी से धड़कता है। जंकी (सीमा विश्वास), अपने पति की आत्महत्या के बाद, न्याय के लिए अदालत का दरवाज़ा खटखटाती है। उसके सामने खड़ा है देश का सबसे ताक़तवर उद्योगपति हरिभाई खेतान (गजराज राव), जिसकी महत्वाकांक्षी योजना “बिकानेर टू बोस्टन” किसानों की ज़मीन और गांव के लोगों की जड़ों को उखाड़ फेंकना चाहती है। इसी संघर्ष में दो वकील—Akshay Kumar और Arshad Warsi—आमने-सामने आते हैं। अदालत के भीतर होने वाली बहसें सिर्फ शब्दों की टकराहट नहीं, बल्कि हक़ और सच्चाई की गूंज बन जाती हैं।
अदाकारी की चमक और दर्द
अरशद वारसी ने इस बार अभिनय से दिल जीत लिया। उनकी आंखों में जो थकान है, उसमें एक आम आदमी का संघर्ष दिखता है, और उनकी आवाज़ में जो दृढ़ता है, उसमें किसानों की पुकार सुनाई देती है। अक्षय कुमार अपने हल्के-फुल्के अंदाज़ और वन-लाइनर्स से माहौल को सहज बनाते हैं, लेकिन जब बात गहराई की आती है तो कहीं-कहीं ठहराव महसूस होता है। गजराज राव का चालाक और निर्मम व्यापारी सचमुच खलनायक नहीं, बल्कि उस व्यवस्था का प्रतीक लगता है जो विकास के नाम पर इंसानियत को रौंद देती है। सौरभ शुक्ला, हमेशा की तरह, फिल्म की रीढ़ हैं। जज त्रिपाठी की मुस्कुराहट में व्यंग्य है और उनकी खामोशी में इंसाफ़ की तड़प। सीमा विश्वास बेहद कम शब्दों में ऐसा दर्द उकेरती हैं कि दर्शक अपने भीतर की इंसानियत को तलाशने लगता है |
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निर्देशन और फिल्म का असर
निर्देशक सुभाष कपूर ने साहस दिखाया है कि उन्होंने किसानों का मुद्दा बड़ी स्क्रीन पर उतारा। हालांकि कुछ जगह फिल्म की गति धीमी हो जाती है और हास्य दृश्यों की भरमार असली विषय से ध्यान भटकाती है, लेकिन जब भी कैमरा अदालत या गांव के दृश्यों पर टिकता है, दिल सिहर उठता है। सिनेमैटोग्राफी गांव की मिट्टी की खुशबू और अदालत की गंभीरता को जीवंत कर देती है। फिल्म की लंबाई ज़रूर भारी लगती है, मगर इसकी आत्मा इतनी मजबूत है कि दर्शक अंत तक जुड़े रहते हैं।
असर जो रह जाता है
Jolly LLB 3 सिर्फ एक फिल्म नहीं, बल्कि एक आईना है—जो दिखाता है कि अगर अन्नदाता का अधिकार छीना जाएगा तो विकास सिर्फ एक सपना रह जाएगा। फिल्म की ताक़त इसका साफ संदेश है, जो हंसी, आंसू और गुस्से के बीच दिल तक पहुँचता है। अरशद वारसी की गहराई, गजराज राव की खलनायकी और सौरभ शुक्ला की व्यंग्यपूर्ण मौजूदगी इसे खास बनाती है।
निष्कर्ष
यह फिल्म हंसाती भी है, रुलाती भी है और सबसे बढ़कर सोचने पर मजबूर करती है। इसमें कमियां हैं—लंबाई, अनावश्यक हास्य और धीमी गति—लेकिन जब परदे पर किसान की लड़ाई और अदालत की गूंज सुनाई देती है, तो ये कमियां गौण लगने लगती हैं। Jolly LLB 3 साबित करती है कि सिनेमा मनोरंजन का साधन ही नहीं, बल्कि समाज की सच्चाई कहने का सबसे प्रभावी जरिया भी है।
और सबसे बड़ा सवाल यही उभरता है—इस देश में ऐसे बहुत देशभक्त हैं जो राष्ट्र के लिए अपनी ज़मीन दे सकते हैं, लेकिन इतिहास गवाह है कि कुर्बानी हमेशा गरीब ही क्यों देता है?