बॉलीवुड को चाहिए नई सोच, सिर्फ सीक्वल और रीमेक नहीं

बॉलीवुड को चाहिए नई सोच, सिर्फ सीक्वल और रीमेक नहीं

आजकल जब भी बड़ी फिल्में रिलीज़ होती हैं, तो ज़्यादातर या तो रीमेक निकलती हैं या फिर किसी हिट फिल्म का सीक्वल। “वॉर 2”, “एनिमल”, “कूल वूलेंट” जैसी हाई बजट फिल्में देखने को मिलती हैं। लेकिन सवाल यह है—क्या दर्शकों को सच में इनसे कुछ नया मिलता है? या सिर्फ फिल्म इंडस्ट्री की जेब भरती है?

रीमेक और सीक्वल की दौड़

बॉलीवुड पिछले कुछ सालों से रीमेक और सीक्वल की लहर में फंसा हुआ है। पुरानी फिल्मों को नए पैकेजिंग के साथ पेश कर दिया जाता है। जैसे—

भूल भुलैया 2

गदर 2

वॉर 2

हेराफेरी 3 (बन रही है)

ये फिल्में बॉक्स ऑफिस पर पैसा तो कमा लेती हैं, लेकिन दर्शकों को वही पुराना मसाला बार-बार परोसती हैं।

असली सिनेमा कहाँ खो गया?

सिनेमा सिर्फ मनोरंजन का साधन नहीं, बल्कि समाज का आईना है। पहले की फिल्में—मदर इंडिया, लगान, स्वदेस—लोगों को सोचने पर मजबूर कर देती थीं। ये फिल्में हमें सिर्फ हँसी और तालियां नहीं, बल्कि ज़िंदगी के लिए प्रेरणा भी देती थीं।

लेकिन आज ज़्यादातर फिल्में एक ही पैटर्न पर बन रही हैं—

हीरो की एंट्री

बड़े-बड़े एक्शन सीन्स

गाने और रोमांस

और फिर क्लाइमैक्स में खलनायक की हार

पर कहानी कहां है? संदेश कहां है?

क्यों ज़रूरी हैं नई और एजेंडावाली फिल्में?

हर फिल्म को अगर सिर्फ पैसा कमाने की मशीन बना दिया जाए, तो समाज के लिए उसका योगदान शून्य रह जाता है। सिनेमा में इतनी ताकत है कि वह—

लोगों की सोच बदल सकता है।

सामाजिक मुद्दों को आवाज़ दे सकता है।

युवाओं को सही दिशा दिखा सकता है।

जैसे—

तारे ज़मीन पर ने बच्चों की ज़िंदगी बदल दी।

पिंक ने औरतों की आवाज़ को बुलंद किया।

छपाक ने एसिड सर्वाइवर्स की लड़ाई सबके सामने रखी।

ये फिल्में याद रहती हैं क्योंकि इन्होंने समाज को कुछ दिया।

नई कहानियाँ क्यों ज़रूरी हैं?

अगर फिल्म इंडस्ट्री बार-बार सिर्फ रीमेक और सीक्वल बनाती रही, तो धीरे-धीरे दर्शक ऊब जाएंगे। नई सोच और नई कहानियाँ ही दर्शकों को थिएटर तक खींच सकती हैं।

जैसे हॉलीवुड में इन्सेप्शन, इंटरस्टेलर या ओपेनहाइमर जैसी फिल्में बनीं, जिन्होंने बॉक्स ऑफिस पर भी जीत हासिल की और दर्शकों को सोचने पर भी मजबूर किया।

मोटिवेशनल सोच

सिनेमा सिर्फ पैसे कमाने का जरिया नहीं होना चाहिए। यह आने वाली पीढ़ियों को दिशा देने का सबसे बड़ा माध्यम है। अगर फिल्मकार नई कहानियाँ, नए मुद्दे और नए आइडियाज़ लेकर आएंगे, तो ही इंडस्ट्री लंबा सफर तय कर पाएगी।

निष्कर्ष

रीमेक और सीक्वल कभी-कभार मनोरंजन कर सकते हैं, लेकिन असली बदलाव लाने के लिए नई सोच वाली फिल्में ज़रूरी हैं।
अगर बॉलीवुड सचमुच आगे बढ़ना चाहता है, तो उसे दर्शकों को सिर्फ मनोरंजन नहीं, प्रेरणा और बदलाव भी देना होगा।
और यही असली सिनेमा का मकसद है।

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