नई दिल्ली, 1 अगस्त 2025
रेटिंग: ⭐⭐⭐ (3/5)
सिनेमाई परदे पर जब कोई फिल्म सामाजिक मुद्दों को उठाती है, तो उम्मीद होती है कि वह न सिर्फ मनोरंजन करे बल्कि दर्शकों को सोचने पर भी मजबूर करे। ‘Dhadak 2 ’ इसी दिशा में एक ईमानदार प्रयास है, जो जातिवाद जैसे संवेदनशील विषय को केंद्र में रखकर बनाई गई है। हालांकि, यह फिल्म उस तीव्रता और प्रभाव को पूरी तरह नहीं पकड़ पाती, जिसकी इस विषय को ज़रूरत होती है।
कहानी का सार: प्रेम, विरोध और सामाजिक भेदभाव की लड़ाई
फिल्म की कहानी नीलेश (सिद्धांत चतुर्वेदी) के इर्द-गिर्द घूमती है, जो एक दलित पृष्ठभूमि से है और कानून की पढ़ाई कर रहा है। नीलेश का सपना है—एक ऐसा समाज, जहां सब बराबर हों। इसी दौरान उसकी मुलाकात होती है विधि (तृप्ति डिमरी) से, जो ऊंची जाति से ताल्लुक रखती है। दोनों के बीच दोस्ती होती है, फिर प्रेम, लेकिन जल्द ही जातिवादी सोच इस रिश्ते की राह में दीवार बन जाती है।
जब विधि के भाई रॉनी (सौरभ सचदेवा) को इस रिश्ते की भनक लगती है, तब नीलेश और विधि के जीवन में कठिनाइयों का दौर शुरू होता है। प्यार, समाज और पहचान के इस संघर्ष की कहानी कुछ हद तक ‘सैराट’ और ‘परियेरुम पेरुमल’ की याद दिलाती है, लेकिन ‘Dhadak 2 ’ का प्रस्तुतिकरण अपेक्षाकृत कम प्रभावी लगता है।
अभिनय: सिद्धांत चतुर्वेदी का शानदार प्रदर्शन
इस फिल्म की सबसे बड़ी ताकत है सिद्धांत चतुर्वेदी का अभिनय। उन्होंने नीलेश के किरदार को बेहद संवेदनशीलता और गहराई के साथ जिया है। उनका दर्द, आक्रोश और अंदरूनी संघर्ष स्क्रीन पर साफ नज़र आता है। खासकर फिल्म के दूसरे हिस्से में उनके कुछ दृश्य दिल को छू जाते हैं।
तृप्ति डिमरी ने भी विधि के रूप में अच्छा काम किया है, हालांकि उनके किरदार को ज़्यादा विस्तार नहीं दिया गया। सौरभ सचदेवा अपने किरदार में चुपचाप लेकिन डरावनी मौजूदगी से छाप छोड़ते हैं। वहीं विपिन शर्मा (नीलेश के पिता) और जाकिर हुसैन (कॉलेज डीन) जैसे कलाकारों का योगदान भी फिल्म को मजबूती देता है।
निर्देशन और लेखन: ईमानदार कोशिश लेकिन अधूरी
निर्देशिका शाजिया इकबाल ने इस फिल्म से अपना डेब्यू किया है। उन्होंने नीलेश और उसके परिवार के रिश्तों, सामाजिक दवाब और जातिगत भेदभाव को दिखाने की ईमानदार कोशिश की है। हालांकि, फिल्म की गति धीमी है और इसकी शुरुआत में किरदारों की पृष्ठभूमि पर अधिक समय दिया गया है, जिससे मूल कहानी देर से पकड़ में आती है।
कई जगहों पर फिल्म भावनात्मक रूप से दर्शकों को पूरी तरह झकझोरने में असफल रहती है। ऐसा लगता है जैसे लेखन में गहराई की जगह कुछ सीमाएं आ गई हों।
संगीत और तकनीकी पक्ष
तनुज टिकु का बैकग्राउंड स्कोर कहानी से मेल खाता है। ‘ये कैसा इश्क’, ‘दुनिया अलग’, ‘बस एक धड़क’ और ‘प्रीत रे’ जैसे गाने फिल्म के मूड को बनाए रखते हैं, हालांकि वे स्मरणीय नहीं हैं। ‘बावरिया’ थोड़ा ऊर्जा लेकर आता है।
कमजोर कड़ियां
‘Dhadak 2 ’ का सबसे बड़ा कमजोर पक्ष है इसकी सीमित गहराई। जातिवाद जैसे गंभीर विषय को छूना एक बात है, लेकिन उसे भीतर तक समझकर पेश करना ज़रूरी होता है। कई दृश्यों में निर्देशक और लेखक का इरादा साफ दिखता है, लेकिन उनका प्रभाव दर्शकों तक पूरी ताकत से नहीं पहुंच पाता।
अगर आप समाज में मौजूद जातिवादी सोच पर बनी फिल्मों को पसंद करते हैं, या सिद्धांत चतुर्वेदी का अभिनय देखना चाहते हैं, तो ‘Dhadak 2 ’ एक बार जरूर देखी जा सकती है। यह फिल्म पूरी तरह से परिपूर्ण नहीं है, लेकिन एक ज़रूरी बातचीत की शुरुआत जरूर करती है।
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