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Thursday, September 11, 2025

‘Son of Sardar 2’ Review: रवि किशन ने समेटा शो, अजय देवगन फीके, कहानी अधपकी और ह्यूमर अधूरा

13 साल बाद लौटा ‘Son of Sardar 2’, पर इस बार छा गए रवि किशन, अजय हुए फीके

Suditi Raje | Published: August 1, 2025 19:20 IST, Updated: August 1, 2025 19:20 IST
‘Son of Sardar 2’ Review: रवि किशन ने समेटा शो, अजय देवगन फीके, कहानी अधपकी और ह्यूमर अधूरा

रेटिंग: ⭐⭐ (2/5)

नई दिल्ली, 1 अगस्त 2025

2012 में आई अजय देवगन की फिल्म Son of Sardar को दर्शकों ने मनोरंजन के नजरिए से सराहा था। अब 13 साल बाद उसी नाम का सीक्वल Son of Sardar 2 सिनेमाघरों में आया है, लेकिन इसका पहली फिल्म से कोई सीधा संबंध नहीं है। अजय देवगन एक बार फिर पंजाबी किरदार में हैं, मगर इस बार बाजी किसी और के हाथ लगी है—नाम है रवि किशन।

कहानी क्या है?


फिल्म की कहानी जस्सी (अजय देवगन) की है, जो पंजाब में अपनी मां के साथ रहता है और पत्नी डिंपल (नीरू बाजवा) के पास लंदन जाने के लिए वीजा लगने का इंतजार कर रहा है। जैसे ही वह लंदन पहुंचता है, डिंपल उससे तलाक और प्रॉपर्टी में हिस्सा मांग लेती है। वहीं दूसरी ओर राबिया (मृणाल ठाकुर) और उनके साथी—दानिश (चंकी पांडे), गुल (दीपक डोबरियाल), महवश (कुब्रा सैत) और सबा (रोशनी वालिया)—भी लंदन में रहते हैं। जस्सी की इनसे मुलाकात होती है और सभी मिलकर राजा (रवि किशन) के परिवार से कैसे जुड़ते हैं, यही फिल्म का कथानक है।

एक्टिंग और किरदारों की बात


अजय देवगन अपने पुराने ढर्रे पर ही चलते नजर आते हैं—ना कुछ नया, ना कुछ एक्साइटिंग। मृणाल ठाकुर की एंट्री ज़ोरदार गालियों के साथ होती है, मगर बाद में उनका परफॉर्मेंस थोड़ा संतुलित हो जाता है।

फिल्म की असली जान बनकर उभरते हैं रवि किशन।
उनकी परफॉर्मेंस इतनी दमदार है कि दर्शक संजय दत्त की कमी नहीं महसूस करते। उनका बिहारी अंदाज़ पंजाबी किरदार में खूब फबता है और यही फिल्म की सबसे बड़ी ताकत है।

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मुकुल देव और विंदू दारा सिंह (टोनी-टीटू) ने छोटे मगर प्रभावशाली किरदार निभाए हैं, जबकि दिवंगत मुकुल देव को बड़े सादगी से पर्दे पर देखकर दिल छूता है।

चंकी पांडे और कुब्रा सैत फिल्म की सबसे कमजोर कड़ी साबित होते हैं। दीपक डोबरियाल जैसे उम्दा अभिनेता को जिस तरह से इन कमजोर किरदारों के बीच फंसा दिया गया, वो वाकई निराशाजनक है, हालांकि उन्होंने पूरी शिद्दत से अपनी भूमिका निभाई है।

निर्देशन


विजय कुमार अरोड़ा, जिन्होंने हरजीता जैसी पुरस्कार विजेता पंजाबी फिल्म बनाई है, इस फिल्म में उलझे हुए नजर आए। उन्होंने इतनी बड़ी स्टारकास्ट को तो समेट लिया लेकिन कहानी और स्क्रिप्ट पर पकड़ नहीं बना सके। फिल्म में बार-बार भारत-पाक एंगल को जबरन लाकर तालियां बटोरने की कोशिश की गई है, मगर इससे कहानी और ज्यादा बिखरती चली जाती है।

फिल्म की टोन पूरी तरह स्पष्ट नहीं है—कभी सेंसलेस कॉमेडी, तो कभी जबरन भावनात्मक ड्रामा, तो कहीं एक्स्ट्रा मैरिटल अफेयर का ट्रैक—यह सब मिलाकर फिल्म को दिशाहीन बना देता है।

संगीत


गाने न तो याद रह जाते हैं और न ही सिचुएशन के अनुसार फिट बैठते हैं। ‘पहला तू.. दूजा तू..’ गाना विदेशी बैकग्राउंड आर्टिस्ट्स के बीच इतना बेमेल लगता है कि हंसी रोकना मुश्किल हो जाए। हां, ओरिजिनल फिल्म का टाइटल सॉन्ग कुछ हद तक राहत देता है।

फाइनल वर्डिक्ट: देखना चाहिए या नहीं?


अगर आप दिमाग घर पर छोड़कर सिर्फ हंसी-मजाक के लिए थिएटर जाना चाहते हैं, तो ये फिल्म आपके लिए है। कुछ सीन में सीटियां और तालियां जरूर सुनने को मिलेंगी। पर अगर आप कंटेंट की तलाश में हैं, तो निराशा हाथ लगेगी।

परिवार के साथ देखने का फैसला इस बात पर निर्भर करता है कि आपके पैरेंट्स और बच्चे कितने मॉडर्न हैं, क्योंकि फिल्म में कई बार डबल मीनिंग और हल्के अश्लील संवाद हैं।

एक सलाह: फिल्म खत्म होते ही सीट से न उठें, क्रेडिट सीन से पहले एक मजेदार कैमियो आपका इंतजार कर रहा है।

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