‘Rana Naidu Season 2’ Review: एक बार फिर वही गालियाँ, वही क्राइम, और वही अधपका मसाला

चमकदार पैकेजिंग, मगर खाली कंटेंट – Rana Naidu फिर फिसला
नई दिल्ली, 14 जून 2025
रेटिंग: ⭐⭐ (2/5)
नेटफ्लिक्स की बहुप्रचारित वेब सीरीज़ ‘Rana Naidu Season 2’ एक बार फिर दर्शकों के सामने हाज़िर है, और इस बार भी वही पुराना स्वाद परोसा गया है—गालियों से भरपूर संवाद, हिंसा की भरमार, और एक ऐसी कहानी जो ग्लैमर में लिपटी है लेकिन जड़ से कटी हुई महसूस होती है। यह सीरीज़ अब भी उसी विदेशी शो ‘रे डोनोवन’ की देसी रीमेक है, और इस रीमेक को रंगने में लगे हैं आधा दर्जन से ज्यादा लेखक—पर अफ़सोस, नतीजा फिर भी अधपका ही लगता है।
कहानी वही, तेवर वही
‘Rana Naidu’ की दुनिया दिखाने की कोशिश की गई है जैसे ये हमारे आस-पास की हकीकत हो, लेकिन इसमें हकीकत जैसी कोई गंध तक नहीं। लेखक ऐसा महसूस कराते हैं जैसे उन्होंने भारत को समझने की कोशिश ही छोड़ दी हो। मुंबई की चकाचौंध से बाहर की ज़िंदगी या तो उनकी कल्पना से बाहर है या फिर उनके एजेंडे में नहीं। क्रिकेट, सिनेमा और सियासत के ट्रैक को ज़बरदस्ती पिरोया गया है, पर ये सभी ट्रैक न इमोशनल कनेक्ट बनाते हैं, न ही दिलचस्पी पैदा करते हैं।
कृति खरबंदा का डेब्यू और अर्जुन रामपाल की एंट्री
इस सीज़न में दो नए चेहरे ज़रूर आते हैं: अर्जुन रामपाल और कृति खरबंदा। रामपाल ने रऊफ मिर्ज़ा नाम के गैंगस्टर का किरदार निभाया है, जो ‘एनिमल’ के रणविजय की कुल्हाड़ी जितना ही खतरनाक दिखाया गया है। दूसरी ओर कृति, आलिया ओबेरॉय की भूमिका में हैं, जो रिश्तों के नाम पर समाज को आइना दिखाने का काम करती हैं। लेकिन उनका किरदार भी कुछ खास असर नहीं छोड़ता। आलिया के पिता को फिल्म स्टूडियो का मालिक दिखा देना, लेखकों की सुविधा का एक और नमूना है।
ओटीटी का मसाला और सेंसर की आज़ादी
ओटीटी प्लेटफॉर्म पर आज़ादी भरपूर है और नेटफ्लिक्स भी इस छूट का भरपूर फायदा उठाता है। पहले सीज़न में जैसी गालियाँ और वल्गैरिटी थी, वही सब दोहराया गया है। दर्शकों की आलोचना के बावजूद यह फॉर्मूला सफल रहा, इसलिए मेकर्स ने इसमें कोई बदलाव करना ज़रूरी नहीं समझा। यहां कंटेंट की क्वॉलिटी से ज़्यादा मायने इसके व्यूज़ रखते हैं।
निर्देशन और लेखन की चूक
सीरीज़ का निर्देशन करण अंशुमान, सुपर्ण वर्मा और अभय चोपड़ा ने किया है, लेकिन तीन-तीन निर्देशकों के बावजूद न तो कोई स्पष्ट विजन दिखता है, न ही मजबूत पकड़। कहानी कई ट्रैकों में उलझती है और दर्शक शुरुआत से ही अंदाजा लगाने लगता है कि आगे क्या होने वाला है। यानी ट्विस्ट्स नाम की कोई चीज़ यहां मौजूद नहीं।
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कलाकारों की मेहनत, लेकिन स्क्रिप्ट ने धोखा दिया
राणा दग्गूबाती की मौजूदगी इस सीरीज की जान है। वे अपने रोल में जमे हुए लगते हैं और शायद यही कारण है कि इसे हिंदी में डब करने की ज़हमत उठाई गई। वहीं वेंकटेश अब अपनी पुरानी चमक खो चुके हैं, और ओवरएक्टिंग से कई बार निराश करते हैं। सुशांत सिंह और अभिषेक बनर्जी जैसे उम्दा कलाकारों के किरदार भी कमज़ोर लेखन के कारण रंग नहीं जमा पाते।
सब विलेन, कोई हीरो नहीं
‘Rana Naidu सीजन 2’ की सबसे बड़ी कमी यह है कि इसमें कोई ऐसा किरदार नहीं है जिससे दर्शक जुड़ सके। हर किरदार ग्रे शेड में है, और कहानी किसी भावनात्मक गहराई तक नहीं पहुंच पाती। सुरवीन चावला ने भावनाओं में जान डालने की पूरी कोशिश की है, लेकिन स्क्रिप्ट उन्हें पूरी उड़ान नहीं देती। डीनो मोरिया की एंट्री से कुछ उम्मीद जगती है, लेकिन वह भी अधूरी रह जाती है।
‘Rana Naidu सीजन 2’ उस किस्म की सीरीज़ है जो चमक-दमक में भले ही ओटीटी पर छा जाए, लेकिन कंटेंट के स्तर पर बहुत पीछे रह जाती है। हिंसा, गालियाँ और अपराध का कॉकटेल परोसने के बावजूद, इसकी आत्मा में वो जान नहीं है जो दर्शकों को अंदर तक छू सके। देखने वाले एक बार फिर यही सोचेंगे—”कितना भी देख लो, फिर भी खालीपन सा क्यों लगता है?”
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