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Tuesday, May 13, 2025

ज्ञान की मशाल जलाने वाले ‘Phule’ अब सिनेमाघरों में: एक ऐसी कहानी जो सिर्फ इतिहास नहीं, आज की जरूरत है

ज्ञान की मशाल जलाने वाले 'Phule' अब सिनेमाघरों में: एक ऐसी कहानी जो सिर्फ इतिहास नहीं, आज की जरूरत है

‘Phule’ हमें इतिहास नहीं, हमारा वर्तमान और भविष्य समझाती है

25 अप्रैल 2025, नई दिल्ली

“ज्ञान के बिना अकल नहीं, अकल के बिना नैतिकता नहीं, और नैतिकता के बिना समाज में कोई गति नहीं। जब गति रुकती है तो समृद्धि भी दूर हो जाती है, और जब समृद्धि नहीं होती, तब पिछड़ा समाज और पिछड़ जाता है।”
महात्मा ज्योतिराव फुले का ये विचार आज भी उतना ही प्रासंगिक है जितना उस दौर में था जब उन्होंने समाज में बदलाव की नींव रखी। उन्हीं की जीवनगाथा और उनकी पत्नी सावित्रीबाई फुले की संघर्षपूर्ण यात्रा पर आधारित फिल्म ‘Phule’ अब संघर्षों के बाद थिएटर में रिलीज हो चुकी है।

ये दुर्भाग्यपूर्ण है कि इस महान दंपत्ति की कहानी, जिन्होंने जाति, धर्म और लिंग के नाम पर हो रहे अन्याय के खिलाफ मोर्चा खोला, उसी देश में उनकी फिल्म को रिलीज करने में अड़चनें आईं। लेकिन अब जब यह फिल्म दर्शकों के सामने है, यह हम सबकी जिम्मेदारी बनती है कि इस कहानी को जानें, समझें और आगे बढ़ाएं।

फिल्म नहीं, एक आंदोलन है ‘Phule’


यह कोई आम बायोपिक नहीं है जो मसाला या ग्लैमर पर टिकी हो। ‘Phule’ एक विचारधारा है, एक चेतना है जिसे निर्देशक अनंत महादेवन ने बड़े ही सच्चे और सादगीपूर्ण तरीके से पर्दे पर उतारा है। निर्देशक पहले भी ‘सिंधुताई सपकाल’ जैसी सशक्त फिल्म दे चुके हैं और ‘फुले’ में भी उनका वही समर्पण झलकता है।

सावित्रीबाई और फातिमा शेख के अंग्रेज़ी संवाद थोड़े असहज लग सकते हैं, लेकिन फिल्म का संदेश इतना शक्तिशाली है कि ऐसी कमियां गौण हो जाती हैं। सेंसर बोर्ड की कुछ कटौतियों के बावजूद फिल्म अपनी आत्मा को बचाए रखने में सफल रही है।

अभिनय: प्रतीक गांधी का दमदार प्रदर्शन


प्रतीक गांधी ने महात्मा फुले के किरदार को जिस संजीदगी से निभाया है, वो काबिल-ए-तारीफ है। उन्होंने सिर्फ अभिनय नहीं किया, बल्कि फुले को जिया है। पिता और भाई के रवैये से उपजी पीड़ा, समाज के अन्याय पर क्रोध, पत्नी के लिए सम्मान और प्रेम – प्रतीक की आंखें हर भावना को दर्शक तक पहुंचाने में सफल रही हैं।

हालांकि पत्रलेखा की ‘सावित्रीबाई’ के किरदार में थोड़ी कमजोरी नज़र आती है, लेकिन उन्होंने भी अपनी भूमिका के साथ न्याय किया है। दोनों के बीच का भावनात्मक संतुलन और परस्पर संवाद फिल्म को वास्तविकता के और करीब लाता है।

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क्यों देखनी चाहिए ‘Phule’?


फुले और सावित्रीबाई की जिंदगी महज एक प्रेम कहानी नहीं थी – वो सामाजिक क्रांति की पहली ईंट थे। प्लेग में मरने से पहले सावित्रीबाई एक बच्चे को पीठ पर लादकर अस्पताल ले गई थीं – यही उनका जज़्बा था। उन्होंने लड़कियों को शिक्षा दी, विधवा पुनर्विवाह को समर्थन दिया और जातिवाद के खिलाफ आवाज़ उठाई – वो लड़ाई आज भी जारी है।

आज भी जब दलितों को मंदिर में प्रवेश करने से रोका जाता है, किसी दलित दूल्हे को घोड़े पर बैठने पर पीटा जाता है, तो ‘Phule’ जैसी फिल्म की प्रासंगिकता और बढ़ जाती है।

यह फिल्म किसी जाति या धर्म के विरोध में नहीं है, बल्कि उन सभी ताकतों के खिलाफ है जो समाज को बांटती हैं। जिस तरह कुछ ब्राह्मणों ने फुले का विरोध किया, वैसे ही कुछ ने उनका समर्थन भी किया – यही संतुलन इस फिल्म को निष्पक्ष बनाता है।

क्रांति की कहानी, जिसे हर भारतीय को जानना चाहिए


‘Phule’ कोई मनोरंजन का माध्यम भर नहीं है। ये फिल्म हमें आईना दिखाती है – जहां सवाल खड़े होते हैं, जैसे – “हम गोमूत्र से घर साफ करते हैं, लेकिन हमारी परछाई से डरते हैं?”
ये फिल्म उन लोगों को समर्पित है, जिन्होंने समाज में बदलाव की नींव रखी। ऐसे दौर में जब धर्म और जाति के नाम पर बंटवारा आसान हो गया है, ‘Phule’ जैसी फिल्में हमें सोचने पर मजबूर करती हैं कि सच्चा विकास तब तक संभव नहीं, जब तक हम भीतर से नहीं बदलते।

इसलिए, ‘Phule’ केवल फिल्म नहीं, एक जिम्मेदारी है – जिसे हर जागरूक नागरिक को निभाना चाहिए।

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